📖 डायरी के पन्नों से: स्कूल, पैरेंट्स और बच्चों के बीच की रेखाएं (School-Parents-Students)
स्टाफ रूम की खामोशी, एक चाय और ढेर सारी सोच Cool BLogger’s Daily Diary
कभी-कभी लगता है जैसे डायरी भी इंसान की तरह हो जाती है — इंतज़ार में चुपचाप बैठी रहती है कि कब हम कुछ महसूस करें, कब कुछ लिखें। आज ऐसा ही दिन था। कई दिनों बाद लगा कि कुछ ऐसा हुआ है जिसे कागज़ पर उतारना चाहिए।
आज स्कूल में एक नई एडमिशन की बातचीत चल रही थी। माता-पिता आए, आम सी बातचीत चल रही थी — स्कूल की पढ़ाई, एक्टिविटीज़, सुरक्षा… और फिर मां ने अचानक एक वाक्य बोला जिसने सोचने पर मजबूर कर दिया।
“अगर मेरे बच्चे को आपके किसी टीचर ने हाथ भी लगाया तो क्या आप पूरी फीस वापस करेंगे?”
एक पल के लिए तो मुझे लगा कि शायद मज़ाक कर रही हैं। लेकिन नहीं, उनका चेहरा बहुत गंभीर था। ये कोई सवाल नहीं था, ये एक चेतावनी थी।

सोचने वाली बात: बच्चों के सामने इस तरह की बातें?
सबसे दुख की बात यह रही कि यह संवाद उस बच्चे के सामने हुआ था जिसका एडमिशन कराया जाना था। सोचिए, जब एक बच्चा पहली बार अपने स्कूल से मिल रहा हो, और वहां मां टीचर को लेकर इतना बड़ा अल्टीमेटम दे दें — तो उस मासूम के मन में टीचर की छवि क्या बनेगी? उस बच्चे के मन में क्या के विचार चल रहे होंगे, उस का बात करने का तरीका teacher के किसी होगा, कई सारे सवाल मन में उथल पुथल मचा रहे है |
कहीं ना कहीं हमने पेरेंटिंग के उस मोड़ पर पहुंच बना ली है जहां “सुरक्षा” का मतलब “अति-संरक्षण” (overprotection) हो गया है।
दो तरह के पेरेंट्स: दोनों का असर अलग
मुझे याद है, कुछ साल पहले एक पेरेंट्स-टीचर मीटिंग में एक पिता ने कहा था –
“सर, सुधार दीजिए मेरा बच्चा। ज़रूरत पड़ी तो दो थप्पड़ भी लगा दीजिए।”
ये सुनते ही क्लास टीचर मुस्कुराई और कहा – “थप्पड़ तो नहीं, लेकिन हम सुधार जरूर लाएंगे।”
इस तरह के पैरेंट्स टीचर को भरोसा देते हैं, और टीचर उस भरोसे को ज़िम्मेदारी में बदलते हैं। बच्चे को पता होता है कि घर और स्कूल दोनों एक साथ हैं, इसलिए उसे सही राह पर रहना है।
जबकि आज का यह वाक्य – “हाथ भी लगाया तो…” एक दीवार बना देता है। टीचर डरता है, मैनेजमेंट असहज हो जाता है, और बच्चा सीखता है – मेरे पीछे तो मेरी मां खड़ी हैं, मुझे कौन क्या कहेगा!
एक और सोच: बच्चों के सामने हम क्या बोल रहे हैं?
कई बार हम अपने विचार बच्चों के सामने इतनी आसानी से रख देते हैं कि हमें पता ही नहीं चलता कि उनके कोमल मन में वो कितना गहराई तक बैठ जाते हैं।
बच्चों को सही-गलत का ज्ञान सिखाने वाले हम ही अगर टीचर की इज्ज़त को उनके सामने गिरा दें, तो क्या हम अनजाने में उनके चरित्र निर्माण में रुकावट नहीं बन रहे?

स्कूल कोई “सुधार गृह” नहीं
स्कूल एक संस्था है जो बच्चों को जीवन के लिए तैयार करती है। हां, कभी-कभी गलती होती है, और उन पर कार्रवाई भी होती है। लेकिन हर स्कूल और हर टीचर का मकसद सिर्फ एक होता है – बच्चों का विकास। अगर हम टीचर को पहले ही शक की निगाह से देखेंगे, तो हम उनके काम को मुश्किल बना रहे हैं।
व्यक्तिगत सोच और ज़िम्मेदारी
यह घटना मेरे लिए सिर्फ एक सवाल नहीं थी, यह एक सोच थी — आज के समय में माता-पिता की ज़िम्मेदारी केवल बच्चों को स्कूल भेजना नहीं, बल्कि उन्हें स्कूल के प्रति विश्वास और सम्मान देना भी है।
मैंने यह वाक्य अपने दिल में उतारा, और सोचा कि आज डायरी फिर से खुलनी चाहिए।
🧭 अंतिम पंक्तियाँ:
“जब आप अपने बच्चों के सामने टीचर की इज्ज़त करते हैं, तो आप उन्हें केवल शिष्टाचार नहीं सिखा रहे, बल्कि उन्हें एक ज़िम्मेदार इंसान बनने की नींव दे रहे होते हैं।”
तो अगली बार जब आप स्कूल जाएं, अपने विचारों को बच्चों के सामने सोच-समझकर रखें। स्कूल और टीचर कोई दुश्मन नहीं, बल्कि आपके ही मिशन के साथी हैं — आपके बच्चे को एक बेहतर इंसान बनाना।
✅ आपकी राय क्या है? क्या माता-पिता को बच्चों के सामने इतनी Openly बोलना चाहिए? या कुछ बातें निजी रहनी चाहिए? नीचे कमेंट में अपनी सोच साझा करें।
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