आज फिर Diary के पन्नों पर कुछ पेरेंटिंग से जुड़ी बातों को लिखने बैठा हूं। पता नहीं क्यों, ये विषय बार-बार मन में आता है और लगता है कि आपको शेयर जरूर करना चाहिए।
सावन का महीना चल रहा है। मंदिरों में रौनक है, प्राण-प्रतिष्ठा और विशेष पूजा-अभिषेक का माहौल है। मैं भी एक मंदिर गया था, जहां भगवान शिव का अभिषेक हो रहा था। वहां एक युवा कपल पंडित जी की मदद से मंत्रोच्चारण के साथ पूजा कर रहे थे। माहौल बेहद शुद्ध, शांत और सुकून देने वाला था। ऐसे ही कुछ क्षणों में नजर एक बच्ची पर गई — लगभग 5 साल की मासूम सी लड़की, जो पास की दीवार के पास बैठी थी… परंतु उसका पूरा ध्यान था मोबाइल पर चल रही रील्स में।

मन ठहर गया!
मैंने फिर देखा — वो बच्ची उसी कपल की थी जो पूजा कर रहे थे। संभवतः, ताकि बच्ची पूजा में डिस्टर्ब न करे, उसे फोन पकड़ा दिया गया था। मैं समझ सकता हूं कि पूजा में ध्यान भंग न हो, इसलिए मोबाइल एक “स्मार्ट विकल्प” बना होगा। लेकिन यहीं से मेरे सवाल शुरू होते हैं:
- क्या यह सही था?
- क्या हम बच्चे को इतना भी नहीं सिखा सकते कि वो कुछ मिनट ईश्वर के सामने मौन खड़ा रहे?
- क्या एक 5 साल की बच्ची को यह नहीं समझाया जा सकता कि माता-पिता क्या कर रहे हैं और यह क्यों किया जा रहा है?
मैं यह नहीं कह रहा कि उन्होंने कुछ गलत किया — हर माता-पिता अपने अनुसार बेस्ट करना चाहते हैं। लेकिन सोचने की बात है कि जिस समय में आत्मिक शांति और परंपरा को जीने का मौका था, वहां बच्ची अपनी दुनिया में गुम थी — मोबाइल की रंगीन स्क्रीन में।
क्या यही सही पेरेंटिंग है?
आजकल के पेरेंट्स पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं। डिजिटल जागरूकता भी बढ़ी है। फिर भी, क्या बच्चों को चुप कराने का सबसे आसान तरीका ‘मोबाइल थमा देना’ बन गया है? क्या बच्चों का शांत रहना अब उनकी सीखने की कीमत पर हो रहा है?
स्क्रीन टाइम पर मैंने पहले भी एक ब्लॉग लिखा है: [Digital Detox for Kids] — लेकिन यह घटना मेरी सोच को और गहरा कर गई।

Digital Detox: 10 Ways to Boost Focus and Score Better in Studies
A Digital Detox means reducing the use of devices like phones, tablets, laptops, etc., for a certain period. It doesn’t mean quitting technology—it means using it smartly.
👉 कभी-कभी सोचता हूं, क्या हम इतने “व्यस्त” हो गए हैं कि बच्चों को जीते-जागते माहौल से काट रहे हैं?
👉 क्या हमारी पूजा-पाठ में बच्चों की भागीदारी अब केवल शांति से बैठना भर रह गई है — वो भी मोबाइल के साथ?
मैंने यह बातें किसी को कहनी नहीं चाहीं, पर डायरी के जरिए आपसे साझा कर सका। क्योंकि शायद आप भी इससे रिलेट कर पाएं।
मैं सोचने लगा…
शायद बच्ची के लिए यह मोबाइल उतना ही सामान्य हो गया है जितना हमारे समय में मिट्टी में खेलना था। लेकिन क्या यह “सामान्यता” बच्चों के मानसिक विकास में एक खालीपन पैदा नहीं कर रही?
हम चाहते हैं कि बच्चे संस्कारी बनें, परंपराओं को समझें, आध्यात्म से जुड़ें — मगर उन्हें यह जीने का अवसर ही नहीं देते। अगर हम हर विशेष क्षण को मोबाइल से भर देंगे, तो भविष्य में उनके मन में इन पलों की कोई तस्वीर नहीं बचेगी — सिवाय एक स्क्रीन के।
मैंने वहां खड़े होकर यह भी महसूस किया कि पेरेंटिंग अब “इंस्टेंट” होती जा रही है — जल्दी समाधान, जल्दी सुलझाव, जल्दी शांति। मगर बच्चे समय मांगते हैं, अनुभव मांगते हैं, नज़दीकी और समझदारी मांगते हैं।
Diary says क्या हम उन्हें यह दे रहे हैं? या बस शांति के बदले स्क्रीन थमा कर अपने कर्तव्य पूरे समझ लेते हैं?
क्या आप भी कभी ऐसी स्थिति में रहे हैं? क्या आपने कभी जानबूझकर या मजबूरी में अपने बच्चे को मोबाइल पकड़ा दिया?
आपके विचारों का इंतजार रहेगा। क्योंकि Cool Daddy Diary सिर्फ मेरी नहीं — हमारी साझा सोच की आवाज है।
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